Sunday, 20 November 2016 04:07AM
AP DESK
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 8 नवंबर की रात अचानक 500 और 1000 के पुराने नोट अमान्य करने के फैसले से देश भर में गहमा-गहमी मची है। इस फैसले का लाभ उठाने की होड़ में दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी (आप) पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ सबसे आगे निकलने की जुगत में लगी है। वे इसे देश की राजनीति में एक बड़ी लकीर खींचने का मौका मान रहे हैं। नोटबंदी पर दिल्ली में हंगामा करने के बाद अब मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दिल्ली से बाहर भी इस मुद्दे पर सभा करने की घोषणा कर चुके हैं।
देश के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी पहले दिन से ही खुद सड़क पर निकल रहे हैं, जाहिर है उनकी पार्टी लगातार इस मुद्दे पर आंदोलन कर रही है और आगे भी यह आंदोलन जारी रहने वाला है। वहीं भाजपा के नेता अपने तरीके से प्रधानमंत्री का समर्थन करते हैं और नोटबंदी का विरोध करने वालों का विरोध करते हैं। यह नजारा दिल्ली में पिछले दिनों से दिख रहा है।
भाजपा को सबसे बड़ा लाभ विपक्ष में पड़ी फूट से मिल रहा है। नोटबंदी पर सभी विपक्षी दलों की राय अलग-अलग है। कांग्रेस और आप की राय भी मिलती है, लेकिन दोनों के समर्थक एक ही तरह के होने के कारण वे साथ चलने को तैयार नहीं हैं। नोटबंदी से पूरा देश परेशान है, इसलिए केंद्र सरकार रोजाना अपने पुराने फैसले में संशोधन करती जा रही है। उसकी मुसीबत यह है कि वह अब किसी भी तरह इस फैसले को वापस नहीं ले सकती। इसीलिए उसने संसद के शीतकालीन सत्र में भी ठंडा रवैया अपनाकर लगातार तीन दिन तक इसे स्थगित होने दिया। उसे भरोसा है कि शायद आगे हालात सामान्य हों या लोग इसे अपनी नियति मान कर स्वीकार लें। इस मुद्दे पर भाजपा के सहयोगी दलों में भी अलग-अलग राय है वहीं सरकार विरोधी जनता दल(एकी) इस मुद्दे पर सरकार के साथ हो गई है।
ईमानदारी का लबादा ओढ़ कर 2012 में राजनीतिक दल बनी आप के नेताओं से बहुत से लोगों का भरोसा उठ गया है। केजरीवाल के राजनीतिक गुरु अण्णा हजारे तक उनके खिलाफ खुल कर बोल रहे हैं। 2014 में आप की 39 दिन की सरकार के मंत्री सोमनाथ भारती या राखी बिड़लान से लेकर इस सरकार के मंत्रियों ने केजरीवाल के चेहरे से बार-बार पर्दा हटाया है। इतना ही नहीं चुनाव में किए गए 70 वायदे भी आप के एजंडे से बाहर दिखने लगे।
ईमानदार पार्टी का दावा करने वाले केजरीवाल ने खुद अपने एक मंत्री असीम अहमद खान को रिश्वत लेने के आरोप में मंत्रिमंडल से निकाला तो फर्जी डिग्री मामले में दूसरे मंत्री जितेंद्र सिंह तोमर को अदालत से सजा मिलने पर मंत्री पद से हटाया। उनके विधायकों पर तो आरोपों की एक पूरी लिस्ट तैयार हो गई है, लेकिन शुचिता की राजनीति का दावा करने वाले केजरीवाल ने इनमें से किसी को भी पार्टी से नहीं निकाला। केजरीवाल ने बिना कानून बनाए अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव भी बनाया था, जिससे उन सदस्यों की सदस्यता खटाई में पड़ गई है। उसके अलावा रोगी कल्याण समिति के अध्यक्ष बनाए गए 27 सदस्यों पर भी सदस्यता खोने का संकट मंडरा रहा है।
विधानसभा चुनाव में आप को 70 में से 67 सीटें दिलाकर लोगों ने पार्टी को बेहतर राजनीति के लिए समर्थन दिया था, लेकिन सरकार जनता की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई। उपराज्यपाल के साथ अधिकारों की लड़ाई लड़ रही दिल्ली सरकार को हाई कोर्ट ने भी 4 अगस्त को झटका दिया, जब कोर्ट ने एक फैसले में कहा कि दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश है, इस नाते दिल्ली के शासक उपराज्यपाल हैं। उपराज्यपाल ने आप सरकार के फैसलों की जांच के लिए पूर्व सीएजी वीके शुंगलू की अगुवाई में तीन सदस्यों की कमेटी बना दी। कमेटी की शुरुआती जांच से ही सरकार की तमाम गड़बड़ियों की जानकारी सार्वजनिक होने लगी, जिसके कारण सरकार की छवि काफी बदल सी गई। इसी का परिणाम हुआ कि नोटबंदी के मुद्दे पर केजरीवाल दिल्ली में जहां भी गए, उनको भारी विरोध का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं 17 नवंबर को बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ आजादपुर मंडी में व्यापारियों की सभा के दौरान उनका भारी विरोध हुआ।
नोटबंदी के मुद्दे पर विरोध तो कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का भी हुआ, लेकिन केजरीवाल उतना नहीं जितना केजरीवाल का हुआ। दिल्ली कांग्रेस और युवक कांग्रेस ने इस मुद्दे पर कई प्रदर्शन भी किए और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन ने कल से फिर आंदोलन करने की घोषणा की है। विपक्षी दलों को लगता है कि सरकार को घेरने का यह बेहतरीन मौका है। केजरीवाल इस मुद्दे पर देश भर में सभा करने वाले हैं। उन्हें और उनके समर्थकों को लगता है कि इस मुद्दे पर अभियान चलाने से उनकी गलतियां ढक जाएंगी। इसमें सच्चाई होने के बावजूद केजरीवाल के लिए लोगों के बीच अपनी विश्वसनीयता एक बार फिर बहाल करना काफी मुश्किल है।