दिल्ली की गलियों और सड़कों पर आवारा कुत्तों का आतंक तेजी से बढ़ रहा है। ताज़ा आंकड़ों के अनुसार, राजधानी के अस्पतालों में रोजाना औसतन 1500 से अधिक लोग कुत्तों के काटने के मामलों में इलाज और एंटी रेबीज वैक्सीनेशन के लिए पहुंच रहे हैं। इसमें अकेले सफदरजंग अस्पताल में प्रतिदिन 700–800 मरीज आते हैं, जबकि राम मनोहर लोहिया (आरएमएल), लोकनायक, और स्वामी दयानंद जैसे अन्य अस्पतालों में प्रतिदिन 100–200 लोग पहुंचते हैं। सबसे अधिक शिकार बच्चे और युवा हो रहे हैं।
डॉक्टरों के अनुसार, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने कुत्ते के काटने की तीन श्रेणियां निर्धारित की हैं:
- केवल जीभ से चाटना – वैक्सीनेशन की आवश्यकता नहीं।
- काटने या खरोंच से निशान – केवल एंटी रेबीज वैक्सीन।
- काटने से खून निकलना या गहरा घाव – एंटी रेबीज वैक्सीन और सीरम दोनों।
रेबीज से बचाव के लिए वैक्सीन की चार डोज (0, 3, 7, 28 दिन) पूरी करना अनिवार्य है। पालतू कुत्ते के काटने पर भी वैक्सीनेशन आवश्यक है, क्योंकि उसके टीकाकरण की प्रभावशीलता की गारंटी नहीं होती।
कई पीड़ितों ने बताया कि हमलों के बाद उन्हें न सिर्फ इंजेक्शन का दर्द सहना पड़ा, बल्कि मानसिक डर भी बना रहता है। कुछ मामलों में कुत्तों के झुंड से बचने के चक्कर में गंभीर चोटें और अस्पताल में भर्ती तक होना पड़ा।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर एमसीडी ने आवारा कुत्तों को सड़कों से हटाकर सुरक्षित शेल्टर होम में रखने की योजना बनाई है। यहां मेल और फीमेल कुत्तों को अलग रखा जाएगा ताकि प्रजनन रोका जा सके। फिलहाल बड़े पैमाने पर नसबंदी की सुविधा नहीं है, इसलिए एमसीडी निजी पशु चिकित्सालयों और एनजीओ की मदद से इस प्रक्रिया को तेज करने पर विचार कर रही है। नसबंदी से न सिर्फ संख्या पर नियंत्रण होगा बल्कि आक्रामक व्यवहार में भी कमी आएगी।
एमसीडी यह भी सुनिश्चित करेगी कि एक ही इलाके के कुत्तों को साथ रखा जाए ताकि आपसी झगड़े और आक्रामकता कम हो। शेल्टर होम के कर्मचारियों को कुत्तों के व्यवहार की पहचान और प्रबंधन के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाएगा।
यह स्थिति न सिर्फ स्वास्थ्य और सुरक्षा का सवाल खड़ा करती है, बल्कि पशु कल्याण और शहरी प्रबंधन के बीच संतुलन बनाने की चुनौती भी पेश करती है।