कांशीराम स्मारक स्थल फिर बनेगा सियासत का केंद्र, मायावती की ‘शक्ति रैली’ से गर्म हुआ यूपी का माहौल
लखनऊ।
9 अक्टूबर 2025 — यह तारीख बहुजन समाज पार्टी (BSP) के लिए सिर्फ़ एक रैली की नहीं, बल्कि राजनीतिक पुनर्जागरण की घोषणा साबित हो सकती है।
क्योंकि, राजधानी लखनऊ का कांशीराम स्मारक स्थल, जो उत्तर प्रदेश की राजनीति का प्रतीक स्थल बन चुका है, एक बार फिर बसपा के “हाथी” के कदमों की थाप सुनने को तैयार है।
🏛️ “अगर भर गया ये मैदान, तो हाथी चलेगा अपनी चाल”
लखनऊ का कांशीराम स्मारक स्थल — जिसकी कुल क्षमता लगभग 5 लाख लोगों की है —
अब तक अगर किसी एक पार्टी ने बार-बार पूरा भरा है, तो वह है बहुजन समाज पार्टी।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इस बार अगर मायावती फिर से यह मैदान भर पाने में सफल हो जाती हैं, तो यह 2027 के विधानसभा चुनावों से पहले बसपा के पुनरुत्थान की घोषणा होगी।
बसपा ने इस रैली को “शक्ति प्रदर्शन” का नाम दिया है।
इसका मकसद केवल भीड़ जुटाना नहीं, बल्कि यह दिखाना है कि मायावती की पार्टी अब भी राजनीतिक मैदान में प्रासंगिक और सशक्त है।
🔵 जमीनी तैयारियां — ज़ोनल से लेकर बूथ स्तर तक सक्रियता
रैली को सफल बनाने के लिए बसपा संगठन ने राज्यव्यापी नेटवर्क को सक्रिय कर दिया है।
हर ज़ोनल कोऑर्डिनेटर, कोऑर्डिनेटर और जिलाध्यक्ष को साफ़ निर्देश मिले हैं —
“हर जिले से बसपाई लखनऊ पहुंचे, चाहे बस से, ट्रेन से या ट्रैक्टर से।”
बसपा के प्रमुख चेहरों में आकाश आनंद, दिनेश चंद्र, नौशाद अली, विश्वनाथ पाल, घनश्याम चंद्र खरवार, भीम राजभर, रामचंद्र गौतम, गयाचरण दिनकर, और शमशुद्दीन राइनी को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वे
हर क्षेत्र से अधिकतम कार्यकर्ताओं को रैली स्थल तक लाएं।
सूत्र बताते हैं कि बसपा के जोनल पदाधिकारी लगातार मैदानी दौरों पर हैं, और बसपा के पुराने वोट बैंक — दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्गों — को फिर से एकजुट करने का प्रयास जारी है।
🗳️ 2007 की यादें और 2027 का सपना
बसपा की यह रैली केवल भीड़ का प्रदर्शन नहीं, बल्कि 2007 की “पूर्ण बहुमत” वाली मायावती सरकार की यादें ताज़ा करने की कोशिश है।
2007 से 2012 तक बसपा सत्ता में थी, लेकिन इसके बाद पार्टी का ग्राफ़ लगातार गिरता गया।
2012, 2017 और 2022 — तीनों चुनावों में बसपा का जनाधार धीरे-धीरे सिमटता गया।
अब मायावती और युवा नेतृत्व आकाश आनंद इस रैली के ज़रिए यह संदेश देना चाहते हैं कि
“हाथी अभी थका नहीं है, बस धीमी चाल से अपनी राह तय कर रहा है।”
राजनीति के जानकारों का मानना है कि यह रैली 2027 के विधानसभा चुनावों के लिए ‘मूड सेटिंग इवेंट’ की तरह काम करेगी।
अगर मैदान भर गया, तो यह बसपा के कार्यकर्ताओं में नया जोश भर सकता है —
और अन्य विपक्षी दलों को भी यह संकेत जाएगा कि बसपा अभी भी समीकरण बिगाड़ सकती है।
🔹 “भीड़ नहीं, विश्वास का प्रदर्शन” — बसपा का संदेश
बसपा का हमेशा से जोर रहा है कि उसके कार्यकर्ता भीड़ नहीं, अनुशासन और विचारधारा लेकर आते हैं।
रैली में मायावती स्वयं मंच पर मौजूद रहेंगी और पार्टी के भावी दिशा-निर्देश पर भाषण देंगी।
यह भी चर्चा है कि मायावती यहां आकाश आनंद की भूमिका को औपचारिक रूप से मजबूत करने का संकेत दे सकती हैं —
जिसे पार्टी की “जनरेशन शिफ्ट” की दिशा में बड़ा कदम माना जाएगा।
🔍 राजनीतिक माहौल — विपक्ष की नजरें बसपा पर
भाजपा और सपा दोनों ही इस रैली पर नज़र रखे हुए हैं।
राजनीतिक रणनीतिकार मानते हैं कि अगर बसपा ने वाकई 5 लाख से अधिक भीड़ जुटा ली,
तो यह न केवल मायावती के आत्मविश्वास को बढ़ाएगा, बल्कि
दलित वोट बैंक के “कंसॉलिडेशन” का संकेत भी देगा।
एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक के शब्दों में —
“उत्तर प्रदेश में जो मैदान लखनऊ के कांशीराम स्मारक स्थल में भरता है, वही चुनावी मैदान में असर छोड़ता है।”
🗣️ लोगों की राय — “मायावती अब भी उम्मीद हैं”
लखनऊ और आस-पास के इलाकों में आम लोगों का कहना है कि
बसपा की रैली सिर्फ़ राजनीतिक शो नहीं, बल्कि विचारधारा की पुनःस्थापना है।
दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय में अब भी मायावती को एक “न्याय और स्वाभिमान” की प्रतीक के रूप में देखा जाता है।
अगर यह रैली उम्मीदों के मुताबिक़ सफल होती है, तो
यूपी की राजनीति में “तीसरे विकल्प” के रूप में बसपा का चेहरा फिर से उभर सकता है।
⚖️ निष्कर्ष:
9 अक्टूबर की यह रैली सिर्फ़ एक आयोजन नहीं, बल्कि
बहुजन समाज पार्टी के “राजनीतिक पुनर्जन्म” की परीक्षा है।अगर मैदान भर गया —
तो हाथी सिर्फ़ चलेगा नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश में अपनी चाल से हलचल मचा देगा।लेकिन अगर भीड़ कम रही —
तो यह बसपा की अंतिम चेतावनी घंटी साबित हो सकती है।
