लखनऊ। राज्य विद्युत परिषद जूनियर इंजीनियर संगठन के 78वें वार्षिक महाधिवेशन का आगाज़ भव्यता के साथ हुआ, लेकिन उद्घाटन सत्र ने ही स्पष्ट कर दिया कि यह मंच संवाद का नहीं, जिम्मेदारी टालने का है। अध्यक्ष आशीष गोयल ने अपने संबोधन में 55 हजार करोड़ रुपये के घाटे का उल्लेख तो किया, पर उसकी असली जड़ों पर बोलने से परहेज़ किया। उलटे, संकेतों में इंजीनियरों को ही कटघरे में खड़ा कर दिया।
“नीतिगत निर्णय हम लेते हैं, पालन इंजीनियर करते हैं”—
इस एक पंक्ति ने संदेश साफ कर दिया: घाटा बढ़ा तो दोष नीचे, फैसले ऊपर।
आईटी का भविष्य, पर जवाबदेही का अतीत
आईटी, प्रशिक्षण और दक्षता की बातें मंच पर गूंजीं, लेकिन सवाल यह है—
जब वर्षों से आदेशों का अक्षरशः पालन हुआ, तो ₹55,000 करोड़ का घाटा किसकी नीतियों की देन है?
क्या प्रशिक्षण से पहले नीतिगत भूलों की स्वीकारोक्ति नहीं होनी चाहिए?

ट्रांसफार्मर ‘कम’ या आंकड़ों का ‘मेकअप’?
ट्रांसफार्मर फूंकना बना ‘अपराध’, आंकड़े बने ‘फर्जी उपलब्धि’
महाधिवेशन में दावा किया गया कि ट्रांसफार्मर फुंकने की घटनाएं कम हुईं। ज़मीनी सच्चाई यह है कि कई जगह पावर हाउस स्तर पर आंकड़े दबाए गए, सर्विस सेंटर बना दिए गए—
काग़ज़ों में सुधार, मंच पर तालियां; मैदान में वही अव्यवस्था।
हकीकत यह है कि घटनाएं कम नहीं हुईं, बल्कि कई जगह पावर हाउस स्तर पर ही ‘सर्विस सेंटर’ बनाकर आंकड़ों को ऊपर तक पहुंचने से रोका गया। नतीजा—कागज़ों में सुधार, मंच पर तालियां और वास्तविकता में वही पुरानी अव्यवस्था।

मांग पत्र पढ़ते ही असहज हुए अध्यक्ष
जब संगठन के महासचिव बलबीर सिंह ने मंच से मांग पत्र पढ़ना शुरू किया, तो “घाटा” शब्द आते ही अध्यक्ष महोदय असहज हो गए। बड़ी सभा में टोकते हुए कहा गया— “समय नहीं है, अंतिम पैरा पढ़ दीजिए, मांग पत्र हमारे पास है।”
यह रवैया बताता है कि सवाल सुनने का धैर्य शीर्ष पर कमज़ोर पड़ चुका है।
55 हजार करोड़ का घाटा — जिम्मेदार कौन?
अध्यक्ष ने स्वीकार किया कि पावर कॉरपोरेशन इस समय करीब ₹55,000 करोड़ के घाटे में है। लेकिन यह बताने से परहेज़ किया कि—
- फर्जी/अनावश्यक एडवाइज़रों पर करोड़ों की तनख्वाह
- मुख्य अभियंताओं की बेतहाशा बढ़ाई गई संख्या
- लखनऊ जैसे शहरों में अधिशासी अभियंता के कार्य पर कई-कई मुख्य अभियंता
- प्रशासनिक फिजूलखर्ची
क्या ये सब घाटे के कारण नहीं हैं?

ओटीएस: ईमानदार को सजा, बेईमान को इनाम
वन टाइम सेटलमेंट (OTS) योजना में ईमानदार उपभोक्ता, जो नियमित बिल जमा कर रहा है, उसे कोई राहत नहीं—
जबकि वर्षों से चोरी करने वाले और बकायेदारों को छूट पर छूट।इसे राजस्व सुधार नहीं, नीतिगत अन्याय कहा जाएगा।
क्या यही न्याय है? क्या यही “राजस्व सुधार” का मॉडल है?
हेल्प डेस्क या ‘शिकायत बूथ’?
वर्टिकल व्यवस्था के नाम पर बनाए गए हेल्प डेस्क उपभोक्ताओं के लिए मज़ाक बन चुके हैं।
- सीमित संख्या
- दूर-दराज़ लोकेशन
- न संसाधन, न अधिकार
- न समाधान
ठंड में 10–20 किलोमीटर भटकता बुजुर्ग उपभोक्ता विभाग को क्या-क्या गालियां देता होगा, इसकी कल्पना करना भी मुश्किल नहीं। जहां मदद नहीं, वहां ‘हेल्प’ का नाम भी छल है।
जहां मदद न मिले, वहां “हेल्प डेस्क” नाम रखना भी उपभोक्ताओं के साथ छल है—बेहतर है इसे “शिकायत बूथ” ही घोषित कर दिया जाए।
पहला दिन ही तोड़ गया उम्मीद
यूपीपीसीएल मीडिया की नजर में जिस उम्मीद के साथ इस महाधिवेशन का पहला दिन शुरू हुआ था, वह उद्घाटन सत्र में ही धूमिल हो गई। इंजीनियरों के मन में उठे सवालों का जवाब देने के बजाय उन्हें ही कटघरे में खड़ा कर देना, शीर्ष प्रबंधन की मानसिकता को उजागर करता है।
उद्घाटन सत्र ने साफ कर दिया— घाटा सिर्फ आंकड़ों का नहीं, सोच का भी है। इंजीनियरों के सवालों का जवाब देने के बजाय उन्हें ही दोषी ठहराना, शीर्ष प्रबंधन की मानसिकता उजागर करता है।
अब सवाल यह है—
क्या महाधिवेशन का दूसरा दिन इन जख्मों पर मरहम लगाएगा, या फिर ऑपरेशन का अगला वार देखने को मिलेगा?
इसका जवाब समय देगा, लेकिन पहला दिन यह साफ कह गया—
घाटा सिर्फ आंकड़ों का नहीं, सोच का भी है। जवाबदेही ऊपर से शुरू हो, तभी सुधार नीचे उतरेगा।
