बिहार की सियासत में लालू यादव का नाम ही अंतिम फैसला माना जाता था।
लेकिन इस बार तेजस्वी यादव ने जो किया, उसे देखकर पूरा राजनीतिक गलियारा सन्न है।
राजद संसदीय बोर्ड ने उम्मीदवार तय करने का अधिकार लालू प्रसाद को दिया था —
और लालू ने अपने अंदाज़ में कुछ प्रत्याशियों को सिंबल (टिकट) भी बांट दिए।
मगर देर रात नाटकीय घटनाक्रम में तेजस्वी यादव के विरोध के बाद
उन्हीं प्रत्याशियों को राबड़ी आवास पहुंचकर सिंबल लौटाना पड़ा।
राजद के 27 साल के इतिहास में यह पहली बार हुआ है जब
लालू यादव के फैसले को पार्टी के अंदर पलट दिया गया।
⚡ राजनीतिक विश्लेषकों का कहना — “तेजस्वी ने पिता की छवि से ऊपर खुद को दिखाने की कोशिश की”
राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि तेजस्वी यादव अब “भावनात्मक राजनीति” से आगे बढ़कर
“राजनीतिक व्यावहारिकता” (Political Pragmatism) की तरफ जा रहे हैं।
उन्हें डर है कि अगर कांग्रेस नाराज़ होकर अलग हो गई,
तो मुख्यमंत्री की कुर्सी का सपना अधूरा रह जाएगा।
🕰️ लालू यादव का पुराना स्टाइल: जब उन्होंने कांग्रेस की नहीं सुनी थी
यह वही लालू यादव हैं जिन्होंने कभी कांग्रेस की परवाह नहीं की।
2021 के तारापुर और कुशेश्वरस्थान उपचुनावों में कांग्रेस से सीधे टकराव के बावजूद
लालू ने अपने मन से प्रत्याशी घोषित कर सिंबल बांट दिए थे।
कांग्रेस भड़क गई, गठबंधन टूटा, और लालू ने कहा था —
“क्या हारने के लिए कांग्रेस को सीटें दें?”
नतीजा: कांग्रेस दोनों सीटों पर हार गई और उसकी जमानत जब्त हो गई।
तब तेजस्वी ने कोई विरोध नहीं किया — बल्कि लालू के साथ खड़े रहे।
🧩 2024 में भी दोहराई गई वही कहानी
2024 लोकसभा चुनाव में भी कुछ ऐसा ही हुआ था।
कांग्रेस औरंगाबाद सीट अपने दिग्गज नेता निखिल कुमार के लिए चाहती थी,
लेकिन लालू ने वहां से अभय कुशवाहा को टिकट दे दिया —
सीट बंटवारे से पहले ही।
कांग्रेस नाराज़ हुई, पर लालू ने फैसला नहीं बदला।
नतीजा — अभय कुशवाहा ने भाजपा से वह सीट जीत ली।
तेजस्वी तब भी चुप रहे, बल्कि लालू के इस निर्णय को “रणनीतिक जीत” बताया था।
💬 अब क्या बदला?
इस बार जब लालू ने प्रत्याशियों को सिंबल बांटे,
तो तेजस्वी ने कहा कि यह कदम गठबंधन धर्म के खिलाफ है।
उन्होंने तर्क दिया कि सीट शेयरिंग पर अभी बात बाकी है,
ऐसे में कांग्रेस और वाम दल नाराज़ हो सकते हैं।
यही वजह थी कि लालू के चुने गए प्रत्याशियों को रातोंरात सिंबल लौटाना पड़ा।
🧠 RJD के भीतर अब दो चेहरे — पिता की विरासत बनाम बेटे की छवि
पार्टी सूत्रों का कहना है कि यह सिर्फ टिकट वितरण का विवाद नहीं,
बल्कि लीडरशिप ट्रांज़िशन का संघर्ष है।
लालू अब भी “जन नेता” हैं, पर तेजस्वी “संयमित चेहरा” बनना चाहते हैं —
जो राष्ट्रीय गठबंधन की राजनीति को साध सके।
एक वरिष्ठ नेता के शब्दों में —
“लालू यादव जनाधार हैं, तेजस्वी यादव जनादेश बनना चाहते हैं।”
