नीतीश सरकार ने ओबीसी से लेकर दलित और आदिवासी तक के आरक्षण को बढ़ाने का दांव चला है. बिहार की सियासत में EBC जातियों का अहम रोल माना जाता है. जिसकी काट ढूंढना बीजेपी के लिए परेशानी का सबब बन गया है क्योंकि अति पिछड़ी जातियां आगामी 2024 के लोकसभा चुनाव में गेमचेंजर साबित हो सकती हैं.
बिहार की सियासत में एक बार फिर से नई इबारत लिखी जा रही है. जातिगत जनगणना के आंकड़े के बाद सर्वे की आर्थिक और शैक्षिक रिपोर्ट भी जारी करके आरक्षण बढ़ाने का दांव मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चल दिया है. जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागेदारी वाले फॉर्मूले को अमलीजामा पहनाने के लिए नीतीश कुमार ने आरक्षण लिमिट को बढ़ाकर 75 फीसदी करने का प्रस्ताव रखा है. नीतीश सरकार ने ओबीसी से लेकर दलित और आदिवासी तक के आरक्षण को बढ़ाने का कदम उठाया है, लेकिन सबसे ज्यादा अतिपिछड़ी (ईबीसी) जातियों के आरक्षण के दायरे को बढ़ाने का दांव चला है.
जातिगत सर्वे के मुताबिक बिहार में सबसे ज्यादा 63 फीसदी ओबीसी हैं, जिसमें 27 फीसदी पिछड़ा वर्ग तो 36 फीसदी अति पिछड़ी जातियां हैं. दलित 19.65 फीसदी, आदिवासी 1.68 फीसदी तो सवर्ण जातियां 15.65 फीसदी हैं. आर्थिक और शैक्षिक रिपोर्ट के मुताबिक 42.93 फीसदी दलित तो 42.70 फीसदी आदिवासी परिवार गरीब हैं. इसी तरह ओबीसी 33.16 फीसदी और अत्यंत पिछड़ी जातियां 33.59 फीसदी गरीब है तो 25.09 फीसदी सवर्ण परिवार भी गरीब हैं.
बिहार की सियासत में EBC जातियों का अहम रोल
बिहार की सियासत में सबसे अहम भूमिका अति पिछड़ी जातियों की होने वाली है. इस बात को बीजेपी काफी पहले समझ गई थी. जेडीयू से अलग होने और जातिगत जनगणना के बाद से बीजेपी का पूरा फोकस अति पिछड़ी जातियों पर केंद्रित हो गया था. बिहार में अति पिछड़ी जाति के वोट बैंक पर नीतीश कुमार की पकड़ मानी जाती रही है, लेकिन आरजेडी के साथ आने के बाद बीजेपी उसे अपना साथ जोड़ने के मिशन में जुट गई थी. जातिगत सर्वे की रिपोर्ट आने के बाद से बीजेपी नेता सवाल खड़े कर रहे थे.
यूपी की तर्ज पर बिहार में BJP की सोशल इंजीनियरिंग
हाल ही में बिहार दौरे पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने आरोप लगाया था कि लालू-नीतीश की जोड़ी ने सर्वेक्षण में मुस्लिम और यादव समुदाय की आबादी को बढ़ाकर अति पिछड़ा और पिछड़ा समुदाय के साथ अन्याय करने का काम किया. उन्होंने कहा कि बिहार के पिछड़ा और अति पिछड़ा दोनों समाज को कहने आया हूं कि ये सर्वेक्षण एक छलावा है. हमने इसका समर्थन किया था. लेकिन हमें नहीं मालूम था कि लालू यादव के दबाव में यादव और मुस्लिम की संख्या बढ़ाकर अति पिछड़ा वर्ग के साथ अन्याय करने का काम नीतीश और लालू करेंगे.
अति पिछड़ी जाति मुख्यमंत्री का मुद्दा उठाते हुए अमित शाह ने कहा था कि ये ‘इंडिया एलायंस’ (विपक्षी दलों का गठबंधन इंडिया) वाले कहते हैं कि जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी, तो ठीक है लालू यादव जी, सर्वेक्षण के अनुसार क्या अति पिछड़ी जातियों को हिस्सेदारी मिलेगी और क्या आप घोषणा करेंगे कि’इंडिया एलायंस’ का मुख्यमंत्री अति पिछड़ा समाज से होगा. इस तरह अमित शाह ने खुलकर अति पिछड़ी जातियों के मुद्दे को उठाया और मोदी कैबिनेट में ओबीसी-ईबीसी जातियों के मंत्रियों की संख्या बताकर सियासी संदेश दिया था.
बीजेपी ने यूपी में गैर-यादव ओबीसी का दांव चलकर अतिपिछड़ी जातियों को अपने साथ जोड़ने में सफल रही थी. यूपी के तर्ज पर पार्टी बिहार में भी अतिपिछड़ी जातियों को साधने की कवायद में जुटी हुई थी, लेकिन सीएम नीतीश कुमार ने मंगलवार को आरक्षण के दायरे को बढ़ाने का दांव चला, जिसमें सबसे ज्यादा अहमियत अतिपिछड़ी जातियों को दिया.
आरक्षण लिमिट बढ़ाकर 75 फीसदी करने का दांव
बिहार में अभी तक ईडब्ल्यूएस कोटे के 10 फीसदी आरक्षण को मिलाकर कुल 60 फीसदी आरक्षण मिल रहा था, लेकिन अब उस बढ़ाकर 75 फीसदी कर दिया है. बिहार में मौजूदा समय में ओबीसी और ईबीसी को 30 फीसदी आरक्षण मिलता है, जिसमें 18 फीसदी ओबीसी जबकि 12 फीसदी ईबीसी यानि अतिपिछड़ी जातियों का कोटा है. अनुसूचित जाति को 16 फीसदी तो अनुसूचित जनजाति को एक फीसदी आरक्षण मिलता है.
सीएम नीतीश ने ओबीसी-ईबीसी के आरक्षण कोटे को 13 फीसदी बढ़ाने का प्रस्ताव रखा है, जिसमें ओबीसी का 6 फीसदी और ईबीसी का 7 फीसदी आरक्षण बढ़ाने का प्रस्ताव रखा है. इस तरह से ओबीसी का आरक्षण 18 से बढ़कर 25 फीसदी तो ईबीसी का 12 फीसदी से बढ़कर 19 फीसदी का है. इस तरह से दलित आरक्षण को 16 से बढ़ाकर 20 और आदिवासियों के आरक्षण को एक फीसदी से बढ़ाकर 2 फीसदी करने का प्रस्ताव रखा है.
महागठबंधन के पास विधानसभा में जिस तरह से विधायकों की संख्या है, उस लिहाज से आरक्षण के बढ़ाने के प्रस्ताव के नीतीश सरकार पास करा लेगी, लेकिन राज्यपाल से उसे मंजूरी मिलना आसान नहीं है. इसकी वजह यह है कि छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार ने भी आरक्षण के दायरे को बढ़ाने का कदम उठाया था, लेकिन राज्यपाल से स्वीकृति नहीं मिल सकी है.
नीतीश का आरक्षण दांव बीजेपी के लिए चुनौती
हालांकि, बिहार में नीतीश कुमार ने जिस तरह से पहले जातिगत जनगणना कराई और उसके बाद आरक्षण बढ़ाने का दांव चला है, उसे चुनौती देना बीजेपी के लिए आसान नहीं है. इतना ही नहीं नीतीश ने जिस तरह से ओबीसी और अतिपिछड़ी जातियों के आरक्षण को बढ़ाने की रणनीति अपनाई है, उसे राज्यपाल रोकते हैं तो आरजेडी और जेडीयू उसे सियासी हथियार के तौर पर बीजेपी के खिलाफ चल सकती है. बीजेपी बिहार के जातिगत सर्वे का विरोध करने के बजाय सवाल उठाती रही है.
बिहार की सियासत पर अगड़ी जातियों का रहा दबदबा
दरअसल, आजादी के बाद लंबे समय तक बिहार की सियासत पर अगड़ी जातियों का दबदबा था. कायस्थ लेकर ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार समुदाय के हाथों में सत्ता की कमान रही, लेकिन जेपी आंदोलन ने ओबीसी के लिए सियासी दरवाजे खोल दिए. बिहार के पहले ओबीसी सीएम सतीश प्रसाद सिंह बने थे, लेकिन वो तीन दिन ही कुर्सी पर रह सके और उसके बाद बीपी मंडल मुख्यमंत्री बने. ओबीसी के लिए मुख्यमंत्री का रास्ता खुला. उनका सियासी प्रभाव मंडल कमीशन के बाद बढ़ा तो फिर अभी तक बोलबाला है. लालू यादव से लेकर राबड़ी देवी और नीतीश कुमार ओबीसी वर्ग से आते हैं.
जातिगत जनगणना के जो आंकड़े सामने आए हैं उससे ओबीसी से ज्यादा अति पिछड़ी जातियां है. ऐसे में कह सकते है कि अगली बारी उनकी है. बिहार में ओबीसी 33 फीसदी तो अति पिछड़े वर्ग की आबादी 36 फीसदी है. ईबीसी में करीब 114 जातियां शामिल हैं. बिहार में ईबीसी वर्ग राजनीति में अपनी भागीदारी को लेकर नए सिरे से दावा कर सकता है, जिसे देखते हुए नीतीश कुमार ने सात फीसदी उनका आरक्षण बढ़ाने का दांव चला है. इस तरह से नीतीश कुमार ने अतिपिछड़ी जातियों पर नजर लगाए बैठी बीजेपी को फंसा दिया है.
बिहार में 36 फीसदी अति पिछड़ी जातियों में केवट, लुहार, कुम्हार, कानू, धीमर, रैकवार, तुरहा, बाथम, मांझी, प्रजापति, बढ़ई, सुनार, कहार, धानुक, नोनिया, राजभर,नाई, चंद्रवंशी, मल्लाह जैसी 114 जातियां अति पिछड़े वर्ग में आती हैं. छोटी-छोटी जातियां, जिनकी आबादी कम है, लेकिन चुनाव में फिलर के तौर पर वो काफी अहम हो जाते हैं. जब किसी दूसरे वोटबैंक के साथ जुड़ जाते हैं तो एक बड़ी ताकत बन जाते हैं.
लोकसभा चुनाव गेमचेंजर हो सकती हैं अति पिछड़ी जातियां
अति पिछड़ी जातियां लोकसभा चुनाव 2024 का गेमचेंजर साबित हो सकती हैं. नीतीश ने 2005-10 के शासनकाल में दो नई जातीय वर्गों को बनाया. इसमें एक था महादलित और दूसरा था अति पिछड़ा. इस अति पिछड़े वर्ग को ही जेडीयू ने अपना मुख्य वोट बैंक बनाने में सफल रही, जिसे अपने साथ साधे रखने की रणनीति है.
नीतीश सरकार ने ओबीसी से लेकर दलित और आदिवासी तक के आरक्षण को बढ़ाने का दांव चला है. बिहार की सियासत में EBC जातियों का अहम रोल माना जाता है. जिसकी काट ढूंढना बीजेपी के लिए परेशानी का सबब बन गया है क्योंकि अति पिछड़ी जातियां आगामी 2024 के लोकसभा चुनाव में गेमचेंजर साबित हो सकती हैं.
बिहार की सियासत में एक बार फिर से नई इबारत लिखी जा रही है. जातिगत जनगणना के आंकड़े के बाद सर्वे की आर्थिक और शैक्षिक रिपोर्ट भी जारी करके आरक्षण बढ़ाने का दांव मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चल दिया है. जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागेदारी वाले फॉर्मूले को अमलीजामा पहनाने के लिए नीतीश कुमार ने आरक्षण लिमिट को बढ़ाकर 75 फीसदी करने का प्रस्ताव रखा है. नीतीश सरकार ने ओबीसी से लेकर दलित और आदिवासी तक के आरक्षण को बढ़ाने का कदम उठाया है, लेकिन सबसे ज्यादा अतिपिछड़ी (ईबीसी) जातियों के आरक्षण के दायरे को बढ़ाने का दांव चला है.
जातिगत सर्वे के मुताबिक बिहार में सबसे ज्यादा 63 फीसदी ओबीसी हैं, जिसमें 27 फीसदी पिछड़ा वर्ग तो 36 फीसदी अति पिछड़ी जातियां हैं. दलित 19.65 फीसदी, आदिवासी 1.68 फीसदी तो सवर्ण जातियां 15.65 फीसदी हैं. आर्थिक और शैक्षिक रिपोर्ट के मुताबिक 42.93 फीसदी दलित तो 42.70 फीसदी आदिवासी परिवार गरीब हैं. इसी तरह ओबीसी 33.16 फीसदी और अत्यंत पिछड़ी जातियां 33.59 फीसदी गरीब है तो 25.09 फीसदी सवर्ण परिवार भी गरीब हैं.
बिहार की सियासत में EBC जातियों का अहम रोल
बिहार की सियासत में सबसे अहम भूमिका अति पिछड़ी जातियों की होने वाली है. इस बात को बीजेपी काफी पहले समझ गई थी. जेडीयू से अलग होने और जातिगत जनगणना के बाद से बीजेपी का पूरा फोकस अति पिछड़ी जातियों पर केंद्रित हो गया था. बिहार में अति पिछड़ी जाति के वोट बैंक पर नीतीश कुमार की पकड़ मानी जाती रही है, लेकिन आरजेडी के साथ आने के बाद बीजेपी उसे अपना साथ जोड़ने के मिशन में जुट गई थी. जातिगत सर्वे की रिपोर्ट आने के बाद से बीजेपी नेता सवाल खड़े कर रहे थे.
यूपी की तर्ज पर बिहार में BJP की सोशल इंजीनियरिंग
हाल ही में बिहार दौरे पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने आरोप लगाया था कि लालू-नीतीश की जोड़ी ने सर्वेक्षण में मुस्लिम और यादव समुदाय की आबादी को बढ़ाकर अति पिछड़ा और पिछड़ा समुदाय के साथ अन्याय करने का काम किया. उन्होंने कहा कि बिहार के पिछड़ा और अति पिछड़ा दोनों समाज को कहने आया हूं कि ये सर्वेक्षण एक छलावा है. हमने इसका समर्थन किया था. लेकिन हमें नहीं मालूम था कि लालू यादव के दबाव में यादव और मुस्लिम की संख्या बढ़ाकर अति पिछड़ा वर्ग के साथ अन्याय करने का काम नीतीश और लालू करेंगे.
अति पिछड़ी जाति मुख्यमंत्री का मुद्दा उठाते हुए अमित शाह ने कहा था कि ये ‘इंडिया एलायंस’ (विपक्षी दलों का गठबंधन इंडिया) वाले कहते हैं कि जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी, तो ठीक है लालू यादव जी, सर्वेक्षण के अनुसार क्या अति पिछड़ी जातियों को हिस्सेदारी मिलेगी और क्या आप घोषणा करेंगे कि’इंडिया एलायंस’ का मुख्यमंत्री अति पिछड़ा समाज से होगा. इस तरह अमित शाह ने खुलकर अति पिछड़ी जातियों के मुद्दे को उठाया और मोदी कैबिनेट में ओबीसी-ईबीसी जातियों के मंत्रियों की संख्या बताकर सियासी संदेश दिया था.
बीजेपी ने यूपी में गैर-यादव ओबीसी का दांव चलकर अतिपिछड़ी जातियों को अपने साथ जोड़ने में सफल रही थी. यूपी के तर्ज पर पार्टी बिहार में भी अतिपिछड़ी जातियों को साधने की कवायद में जुटी हुई थी, लेकिन सीएम नीतीश कुमार ने मंगलवार को आरक्षण के दायरे को बढ़ाने का दांव चला, जिसमें सबसे ज्यादा अहमियत अतिपिछड़ी जातियों को दिया.
आरक्षण लिमिट बढ़ाकर 75 फीसदी करने का दांव
बिहार में अभी तक ईडब्ल्यूएस कोटे के 10 फीसदी आरक्षण को मिलाकर कुल 60 फीसदी आरक्षण मिल रहा था, लेकिन अब उस बढ़ाकर 75 फीसदी कर दिया है. बिहार में मौजूदा समय में ओबीसी और ईबीसी को 30 फीसदी आरक्षण मिलता है, जिसमें 18 फीसदी ओबीसी जबकि 12 फीसदी ईबीसी यानि अतिपिछड़ी जातियों का कोटा है. अनुसूचित जाति को 16 फीसदी तो अनुसूचित जनजाति को एक फीसदी आरक्षण मिलता है.
सीएम नीतीश ने ओबीसी-ईबीसी के आरक्षण कोटे को 13 फीसदी बढ़ाने का प्रस्ताव रखा है, जिसमें ओबीसी का 6 फीसदी और ईबीसी का 7 फीसदी आरक्षण बढ़ाने का प्रस्ताव रखा है. इस तरह से ओबीसी का आरक्षण 18 से बढ़कर 25 फीसदी तो ईबीसी का 12 फीसदी से बढ़कर 19 फीसदी का है. इस तरह से दलित आरक्षण को 16 से बढ़ाकर 20 और आदिवासियों के आरक्षण को एक फीसदी से बढ़ाकर 2 फीसदी करने का प्रस्ताव रखा है.
महागठबंधन के पास विधानसभा में जिस तरह से विधायकों की संख्या है, उस लिहाज से आरक्षण के बढ़ाने के प्रस्ताव के नीतीश सरकार पास करा लेगी, लेकिन राज्यपाल से उसे मंजूरी मिलना आसान नहीं है. इसकी वजह यह है कि छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार ने भी आरक्षण के दायरे को बढ़ाने का कदम उठाया था, लेकिन राज्यपाल से स्वीकृति नहीं मिल सकी है.
नीतीश का आरक्षण दांव बीजेपी के लिए चुनौती
हालांकि, बिहार में नीतीश कुमार ने जिस तरह से पहले जातिगत जनगणना कराई और उसके बाद आरक्षण बढ़ाने का दांव चला है, उसे चुनौती देना बीजेपी के लिए आसान नहीं है. इतना ही नहीं नीतीश ने जिस तरह से ओबीसी और अतिपिछड़ी जातियों के आरक्षण को बढ़ाने की रणनीति अपनाई है, उसे राज्यपाल रोकते हैं तो आरजेडी और जेडीयू उसे सियासी हथियार के तौर पर बीजेपी के खिलाफ चल सकती है. बीजेपी बिहार के जातिगत सर्वे का विरोध करने के बजाय सवाल उठाती रही है.
बिहार की सियासत पर अगड़ी जातियों का रहा दबदबा
दरअसल, आजादी के बाद लंबे समय तक बिहार की सियासत पर अगड़ी जातियों का दबदबा था. कायस्थ लेकर ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार समुदाय के हाथों में सत्ता की कमान रही, लेकिन जेपी आंदोलन ने ओबीसी के लिए सियासी दरवाजे खोल दिए. बिहार के पहले ओबीसी सीएम सतीश प्रसाद सिंह बने थे, लेकिन वो तीन दिन ही कुर्सी पर रह सके और उसके बाद बीपी मंडल मुख्यमंत्री बने. ओबीसी के लिए मुख्यमंत्री का रास्ता खुला. उनका सियासी प्रभाव मंडल कमीशन के बाद बढ़ा तो फिर अभी तक बोलबाला है. लालू यादव से लेकर राबड़ी देवी और नीतीश कुमार ओबीसी वर्ग से आते हैं.
जातिगत जनगणना के जो आंकड़े सामने आए हैं उससे ओबीसी से ज्यादा अति पिछड़ी जातियां है. ऐसे में कह सकते है कि अगली बारी उनकी है. बिहार में ओबीसी 33 फीसदी तो अति पिछड़े वर्ग की आबादी 36 फीसदी है. ईबीसी में करीब 114 जातियां शामिल हैं. बिहार में ईबीसी वर्ग राजनीति में अपनी भागीदारी को लेकर नए सिरे से दावा कर सकता है, जिसे देखते हुए नीतीश कुमार ने सात फीसदी उनका आरक्षण बढ़ाने का दांव चला है. इस तरह से नीतीश कुमार ने अतिपिछड़ी जातियों पर नजर लगाए बैठी बीजेपी को फंसा दिया है.
बिहार में 36 फीसदी अति पिछड़ी जातियों में केवट, लुहार, कुम्हार, कानू, धीमर, रैकवार, तुरहा, बाथम, मांझी, प्रजापति, बढ़ई, सुनार, कहार, धानुक, नोनिया, राजभर,नाई, चंद्रवंशी, मल्लाह जैसी 114 जातियां अति पिछड़े वर्ग में आती हैं. छोटी-छोटी जातियां, जिनकी आबादी कम है, लेकिन चुनाव में फिलर के तौर पर वो काफी अहम हो जाते हैं. जब किसी दूसरे वोटबैंक के साथ जुड़ जाते हैं तो एक बड़ी ताकत बन जाते हैं.
लोकसभा चुनाव गेमचेंजर हो सकती हैं अति पिछड़ी जातियां
अति पिछड़ी जातियां लोकसभा चुनाव 2024 का गेमचेंजर साबित हो सकती हैं. नीतीश ने 2005-10 के शासनकाल में दो नई जातीय वर्गों को बनाया. इसमें एक था महादलित और दूसरा था अति पिछड़ा. इस अति पिछड़े वर्ग को ही जेडीयू ने अपना मुख्य वोट बैंक बनाने में सफल रही, जिसे अपने साथ साधे रखने की रणनीति है.