अशोक सिंघल की ख़ासियत देखिए कि राम मंदिर के लिए अलग-अलग मतों और पंथों में बंटे साधु-समाज को एक मंच पर लाना आसान नहीं था, लेकिन उन्होने अपनी धर्म-साधना से इसे भी सरल बना दिया. विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार ने बताया कि बहुत सारे संत विश्व हिन्दू परिषद को कुछ समझते नहीं थे. परिषद भी इतनी बड़ी नहीं थी. कुछ अशोक जी को बड़ा नहीं मानते थे. अशोक जी की तब उतनी ख्याति भी नहीं थी.
अगले साल 22 जनवरी को अयोध्या के राम मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा हो रही है. बरसों के संघर्ष के बाद ये अवसर आ रहा है. ये अवसर कैसे आया और किन-किन योद्धाओं के कारण ऐसा संभव हुआ? अयोध्या पर टीवी9 भारतवर्ष लेकर आया है एक सीरीज, जिसमें आप उन योद्धाओं से मिलेंगे जिन्होंने राम मंदिर के लिए लाठी-गोली की परवाह नहीं की, जिन्होंने सड़क से सत्ता के गलियारों तक संघर्ष किया और आख़िरकार उनकी ही कोशिश से अयोध्या में भव्य-दिव्य राम मंदिर आकार ले रहा है. ये रामजन्मभूमि आंदोलन के झंडाबरदार हैं, इसलिए हमने उन्हें राम साधक नाम दिया है.
हिंदुओं का ज्वार कोई ख़ालिस कल्पना नहीं थी. 1980 और 1990 के दशक में हिंदुत्व के केसरिया ज्वार का गवाह देश रहा है. देश ने अपनी नज़रों से अयोध्या में इस मुगलकालीन ढांचे को ज़मींदोज़ होते देखा है. अब, आज की तारीख़ में अयोध्या में अतीत के इसी ढांचे के ऊपर एक भव्य, दिव्य, अलौकिक और अद्वितीय राम मंदिर आकार ले चुका है. प्रश्न है, ऐसा कैसे संभव हुआ, कैसे राम मंदिर के लिए देश के कोने-कोने में जनांदोलन खड़ा हुआ. किसने इस ढांचे को हिंदू अस्मिता के साथ जोड़ा, वो कौन था जिसने लाखों साधु-संतों को एक मंच पर एक मुद्दे के लिए इकट्ठा किया, वो कौन था जिसने राम मंदिर मुद्दे को सत्ता के गलियारे का सबसे अहम सवाल बना दिया.
तो जवाब है अशोक सिंघल. एक ऐसे राम साधक, संन्यासी, योद्धा, शिल्पकार, हिंदुत्व के प्रखर वक्ता, जिनकी साधना-जिनकी तपस्या, जिनकी दूरदृष्टि अयोध्या के राम मंदिर के पत्थरों में आकार ले चुकी है, वो सही मायने में अयोध्या के राम मंदिर के नींव की पत्थर हैं.
आगरा में जन्मे थे अशोक सिंघल
क्या किसी ने कल्पना की थी कि 16 शताब्दी में बाबर निर्मित बाबरी ढांचे को ज़मींदोज़ कर भव्य राम मंदिर का निर्माण किया जा सकता है, लेकिन अशोक सिंघल के बेमिसाल संगठन क्षमता, लगातार प्रयास, मिशन को पूरा करने के संकल्प और असंभव को संभव कर दिखाने के जज्बे ने ये कमाल कर दिया.
27 सितंबर 1926 को उत्तर प्रदेश के आगरा में एक संभ्रांत परिवार में अशोक सिंघल का जन्म हुआ. बीएचयू ने उन्होंने मेटलर्जिकल इंजीनियरिंग की डिग्री ली, वो संगीत में भी सिद्धहस्त थे. लेकिन संगीत साधक अशोक सिंघल ने इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद नौकरी नहीं की बल्कि धर्म और समाज की इंजीनियरिंग करने निकल पड़े. उन्होंने हिंदुत्व का सिरा पकड़ा और संघ का दामन थामा. शुरुआती दिनों में उनका पड़ाव गोरखपुर का गोरक्ष पीठ भी था. इस तरह 1970 के दशक तक अशोक सिंघल गौ, गंगा, गीता और गायत्री के उत्थान के लिए समर्पित थे, लेकिन 1980 के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन्हें विश्व हिंदू परिषद में भेजा और कुछ ही बरसों पर बाद उन्होंने राम मंदिर मुद्दे में चिंगारी नज़र आने लगी.
राम मंदिर आंदोलन से अशोक सिंघल कैसे जुड़े
अशोक सिंघल की अगुवाई में राम मंदिर आंदोलन की बुनियाद कैसे पड़ी, इसकी एक दिलचस्प कहानी अयोध्या से करीब 2500 किलोमीटर दूर शुरू होती है. 19 फरवरी 1981 को तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम् में 180 दलित परिवारों ने धर्मांतरण कर इस्लाम कबूल कर लिया. इस खबर से दिल्ली तक सियासत गर्म हो गई. इस घटना का सीधे तौर पर अयोध्या के राम मंदिर विवाद से दूर-दूर तक संबंध नहीं था, लेकिन मीनाक्षीपुरम में दलितों के इस्लाम कबूल करने की यही घटना विश्व हिंदू परिषद के राम मंदिर आंदोलन की बुनियाद बनी, जिसके सूत्रधार बने अशोक सिंघल, जो तब संघ के प्रचारक के रूप में दिल्ली प्रांत का काम संभाल रहे थे.
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने बताया कि मीनाक्षीपुरम के धर्मांतरण की बड़ी घटना के बाद संघ की एक बड़ी बैठक प्रांत प्रचारक या उससे ऊपर के सभी पदाधिकारी बैंगलोर में गठित और वहां सबकी चिंता थी कि हिन्दू समाज का इस तरह से विखंडन या अपहरण जो हो रहा है धर्मांतरण के जरिए उसे कैसे रोका जाए. उसमें लोगों से सुझाव मांगे गए. उसमें सब से बढ़ चढ़कर के और ऊंची आवाज में जो व्यक्ति बोल रहा था, जिससे लग रहा था कि सबसे ज्यादा अगर कोई इस घटना से मर्माहत है तो वह अशोक सिंघल है.
मीनाक्षीपुरम की घटना के दो साल बाद विश्व हिंदू परिषद ने काठमांडू से रामेश्वरम, गंगा सागर से सोमनाथ मंदिर और हरिद्वार से कन्याकुमारी तक यात्राएं निकालीं, जिनका नाम था एकात्मता यात्रा. विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार के अनुसार, सारे भारत में इस यात्रा का जैसा स्वागत हुआ. नागपुर में जैसा ये पहुंची तो हिंदुत्व का भाव जागरण और देश भक्ति का भाव जागरण इन दोनों में वो यात्राएं सफल रहीं और मैं कह सकता हूं कि राम जन्मभूमि के आंदोलन की भूमिका भी इसमें से बनी.
एकात्मता यात्रा से बदला हिंदुत्व का माहौल
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने कहा, ”जहां तक मुझे याद है, मैं दिल्ली में ही था. विश्व हिन्दू परिषद की प्राथमिकता में तो धर्मान्तरण का सवाल सबसे ऊपर था. धर्मान्तरण से हिन्दू समाज को कैसे बचाया जाए और इसी मुद्दे के साथ-साथ जब अशोक सिंघल ने देखा कि कई ऐसे जैसे दाउदयाल गुप्त और भी कई कांग्रेस के पूर्व बड़े नेता राम मंदिर वाले सवाल को उठा रहे हैं तो इस बारे में विचार हुआ होगा और फिर कार्यक्रमों की रचना हुई जो पहला कार्यक्रम एकात्मता यात्रा का था.
एकात्मता यात्रा से देश में हिंदुत्व का माहौल बना. ऐसी स्थिति में 1984 में दिल्ली के विज्ञान भवन में धर्म संसद हुई और इसका संचालन अशोक सिंघल ने किया. इस धर्म संसद में पहली बार राम मंदिर का प्रस्ताव पारित हुआ. इससे आरएसएस को जोड़ा और फिर साधु-संतों को. इस तरह वो अशोक सिंघल थे, जिन्होंने राम मंदिर आंदोलन का सपना देखा, उसे तराशा और फिर साकार कर दिखाया. यही कारण है कि उनके योगदान की प्रशंसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर तमाम हिंदू धर्माचार्य तक करते हैं.
अशोक सिंघल की ख़ासियत देखिए कि राम मंदिर के लिए अलग-अलग मतों और पंथों में बंटे साधु-समाज को एक मंच पर लाना आसान नहीं था, लेकिन उन्होने अपनी धर्म-साधना से इसे भी सरल बना दिया. विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार ने बताया कि बहुत सारे संत विश्व हिन्दू परिषद को कुछ समझते नहीं थे. परिषद भी इतनी बड़ी नहीं थी. कुछ अशोक जी को बड़ा नहीं मानते थे. अशोक जी की तब उतनी ख्याति भी नहीं थी. कुछ समर्थन नहीं करते थे. कुछ लोग मानते थे कि तुम हमारा समर्थन करते हो पर उनके पास क्यों जाते हो. मेरी निश्चित जानकारी ऐसी है कि कई बार ऐसा हुआ कि किसी संत के पास गए और उन संतों ने उनको गाली बकना शुरू किया. बुरा भला कहना शुरू किया और गाली बकने और बुरा भला कहने का ये जो सत्र है यह 40-45 मिनट चला वो भी निश्चल भाव से भूमि की ओर देखते बैठे रहे. जब महात्मा जी गाली दे कर थक गए तो प्रणाम करके आ गए. थोड़े दिन बाद फिर पहुंच गए. इस सब में से सब संतों को लगा कि नहीं व्यक्ति तो अच्छा है. बात भी ठीक करता है. आंदोलन का बल भी दिख रहा था. शक्ति है विश्व हिंदू परिषद की ये भी मालूम हो रहा था. इन सब कारणों से सब संत जुड़ते गए और यह कारवां बढ़ता गया.
अशोक सिंघल फाउंडेशन के संस्थापक महेश भागचंदका के मुताबिक, अशोक जी जब साधु संतों से मिलते तो केवल उनके पांव नहीं छूते चरण नहीं छूते थे. दंडवत प्रणाम करते थे वो और दंडवत प्रणाम करके जब आप किसी के सामने बैठते थे तो गुरु के अंदर भी वो इच्छा होती थी कि मैं शिष्य को क्या दूं तो अशोक जी उनसे वहीं से मांगते कि आप लोग इतने बड़े गुरु हैं, आप लोग जागृत होइए और जागृत करिए.
फिर राम मंदिर आंदोलन का शंखनाद
श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के गठन के साथ राम मंदिर आंदोलन का शंखनाद हो गया. अशोक सिंघल को मालूम था कि आंदोलन लंबा चलेगा और लंबे आंदोलन से लोगों को जोड़े रखने के लिए लगातार कोई न कोई बड़ा आयोजन ज़रूरी था, जिसका पूरा खाका पहले से तैयार था. शुरुआत वर्ष 1984 में श्रीराम जानकी रथयात्रा से हुई.
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने बताया कि इस तरह के कार्यक्रमों की अशोक जी को जो विद्यार्थी आंदोलन से लंबा अनुभव था तो उन्हें इसका भी पता रहता था कि किन कार्यक्रमों की रचना से समाज जुड़ेगा. आंदोलन का प्रसार होगा, इसीलिए उन्होंने कुछ प्रतीक चुने और राम जानकी रथयात्रा यानी अयोध्या से जनकपुर तक की यात्रा. अभी एक प्रतीकात्मक यात्रा और इससे लोगों में जागरण का भी भाव आया, ये भी आया कि इस आंदोलन का महत्व क्या है.
लेखक राजीव गुप्ता ने याद करते हुए कहा कि जब भी अशोक जी ऐसा कोई कार्यक्रम बड़ा बनाते थे कि जिससे हमें समाज को जोड़ना है. अशोक जी बार-बार कहते थे कि राम जन्म भूमि का मामला सिर्फ अयोध्या पर राम मंदिर निर्माण करने का नहीं है. सिर्फ आप ही तो ये भारत के जन चेतना या भारत के सभी समाज के सभी लोगों को जोड़ने का एक ये मिशन है, आन्दोलन है या अभियान है जब अशोक जी चिंतन को रखकर कोई योजना बनाते थे तो उसी योजना में जब वो कोशिश करते थे कि चाहे जानकी रथयात्रा हो या राम ज्योति की बात हो, कैसे समाज का सभी वर्ग उससे जुड़ पाए तो कभी उन्होंने सवाल उठाया और एक रुपये राम की बात की, कभी 10 रुपये की बात कहीं. जो मैंने बताया कि अशोक जी ने जब यात्रा का ये पूरा प्रारूप बनाया था तो उस समय पर वो जो राम जानकी रथयात्रा है जोकि पुनौरा धाम सीतामढ़ी से चला था, जहां पर मां सीता का जो जन्मस्थल माना जाता है, वहां से जब रथ निकाले गए तो उससे उसके साथ लोगों का जुड़ाव होता गया, स्वतः ही कार्यक्रम की संरचना कुछ इस प्रकार से की थी.
बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी भी सक्रिय
रथयात्रा की सफलता के तुरंत बाद शिला पूजन के लिए विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता और साधु-संत निकल पड़े. तब तक इस आंदोलन से युवाओं और महिलाओं को जोड़ने के लिए विश्व हिंदू परिषद की दो शाखाएं- बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी सक्रिय हो चुकी थीं. दुर्गा वाहिनी का नेतृत्व साध्वी ऋतंभरा को दी गई और बजरंग दल के ध्वजवाहक बने संघ के युवा प्रचारक विनय कटियार. विनय कटियार ने बताया कि विद्यार्थी जीवन से चलें तो राम मंदिर का कोई मामला नहीं था. राम मंदिर का विषय तो हमने शुरू किया और उसमें आंदोलन चलाया. अशोक सिंघल ने कहा, काम करते रहो. सामने से आकर के उन्होंने कहा, यह समय है राम मंदिर का यह मुक्त होना चाहिए. ये विदेशी आक्रांताओं ने जिस प्रकार से इसको तोड़ा है वह कभी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. तो यह ऐसे शुरू हुआ.
अयोध्या आंदोलन की जो रूपरेखा विश्व हिंदू परिषद ने बनाई, उसमें एक तरफ हिंदुत्व का उफान था, तो दूसरी ओर कानूनी दांवपेच. शाह बानो केस के बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोपों से घिरे थे. छवि सुधारने के लिए उन्होंने अयोध्या में गैर विवादित ज़मीन पर राम मंदिर बनाने की हामी भर दी, जिसकी सलाह उन्हें सिद्ध संत देवराहा बाबा ने दी थी.
राजीव गांधी सरकार बोफोर्स घोटाले में फंसकर अयोध्या को भूल गई, लेकिन विश्व हिंदू परिषद नहीं भूली. प्रयाग कुंभ की धर्म संसद में राम मंदिर के लिए शिलान्यास का शंखनाद हो गया. इसके 10 महीने बाद नवंबर 1989 में देवराहा बाबा के दर्शन के लिए अशोक सिंघल पहुंचे.
अयोध्या में अक्टूबर 1990 में कारसेवकों पर फायरिंग
संतों और रामभक्तों का विश्वास टूटने न पाए, इसलिए अक्टूबर 1990 में विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिए कारसेवा करने की घोषणा की. उस समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव सरकार आंदोलन को लेकर सख्त थी, लेकिन कारसेवा के लिए लाखों कारसेवकों के साथ अशोक सिंघल भी भेष बदलकर अयोध्या पहुंच गए. 2 नवंबर को कारसेवकों पर गोलियां चलीं, लाठीचार्ज हुए, जिसमें अशोक सिंघल भी घायल हुए.
4 अप्रैल 1991 को नई दिल्ली के बोट क्लब तीन लाख से अधिक लोगों का उद्घोष ”मंदिर वहीं बनाएंगे” विश्व हिंदू परिषद के राम मंदिर आंदोलन की ताकत ही नहीं, बल्कि भविष्य की झांकी भी दिखा रहा था. उस दिन पूरी दिल्ली ठप थी. रामभक्तों का हुजूम उत्साह से भरा था. दो महीने बाद केंद्र में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार बनी, जिसने अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद सुलझाने की पहल की, लेकिन बात नहीं बनी. बातचीत जो विफल हुई वो इसलिए हुई, क्योंकि नरसिंह राव की कोशिश राजनीतिक थी और दूसरी तरफ ईमानदारी से अयोध्या आंदोलन का जो मंदिर है यानी राम मंदिर का निर्माण उस तरफ बढ़ने के लिए 6 दिसंबर एक आवश्यक निर्णय था और उसमें कोई समझौते की गुंजाइश नहीं थी.
6 दिसंबर 1992, अयोध्या
और फिर वो दिन भी आया, जब समझौते की सारी उम्मीदें ध्वस्त हो गईं. राम मंदिर निर्माण के लिए 8 वर्ष से बेचैन कारसेवकों के सब्र का बांध टूटा और उसी उन्माद में बह गया 464 साल पुराना बाबरी ढांचा. विनय कटियार ने याद करते हुए कहा कि वहां तो जमीन तैयार थी, बार-बार बुलाया जा रहा था. आइए आइए, आइए तो कारसेवकों को लगा ये बार-बार बुलाते हैं कैसे काम चलेगा. आओ पूजा करो, चले जाओ तो उससे काम नहीं चलने वाला. आखिर वहां मंदिर बनना है तो वहां पर एक बिल्डिंग खड़ी है. कोई मस्जिद नहीं थी. ये तो मुसलमानों का वहां कब्जा करने की कोशिश थी, कब्जा होने नहीं दे रहे थे तो उनको हटा दिया. सब चला गया बात खत्म हो गई. बिना हटाए हुए मंदिर का निर्माण नहीं हो सकता था, वो हटा बहुत से मुसलमान ने भी साथ दिया.
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने बताया कि जो कुछ हुआ वहां उसमें जो राजनीतिक नेतृत्व था जैसे लालकृष्ण आडवाणी और अन्य लोग जो वहां लोग उपस्थित थे, उनका कहना है मैने तो देखा नहीं था कि सबके चेहरे से हवाइयां उड़ गई थी. सब के चेहरे पर तनाव था और वह भौंचक व चकित थे कि ये क्या हो गया, लेकिन केवल एक व्यक्ति था जिस को सब लोगों को शांत करते या संभालते देखा गया वे अशोक सिंघल थे. अशोक सिंघल के चेहरे पर आत्मविश्वास था. अशोक सिंघल के चेहरे पर संतोष का भाव था. अशोक सिंघल के चेहरे पर कोई किसी तरह का कोई तनाव नहीं था और ना ही अपराध बोध था.
SC फैसले से पहले सिंघल चले गए
बाबरी ढांचा ध्वस्त होने के बाद अयोध्या में राम जन्मभूमि के लिए कानूनी जंग जीतना ज़रूरी था. ये भी निश्चित था कि राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद अदालती आदेश के बाद ही खत्म होगा. ऐसे में सवाल ये उठता है कि फिर विश्व हिंदू परिषद और अशोक सिंघल के आंदोलन से क्या हासिल हुआ. इसका जवाब 9 नवंबर 2019 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में है. मामला भूमि विवाद का था और सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से रामलला को ही अपने जन्मस्थान की भूमि का स्वामी माना. अयोध्या में 1858 से चल रहे ज़मीन विवाद के आखिरी याचिकाकर्ता रामलला ही थे, जिनकी ओर से एक जुलाई 1989 को इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कराई गई.
लेखक राजीव गुप्ता ने बताया कि कुछ मुकदमें न्यायालय के समक्ष जो थे, उसमें भगवान रामलला विराजमान और श्री रामजन्म भूमि को उसमें पक्षकार नहीं बनाया गया था. अब जो भारतीय कानून है, उसके अनुसार जो भगवान का विग्रह का बाल रूप होता है. उनके साथ उनके बिहाफ (BEHALF) पर क्योंकि वो माइनर है, जैसे अबोध बालक का अगर कोई केस हो तो उनके माता पिता या कोई मित्र या परिवार का जब उनके बिहाफ (BEHALF) पर लड़ते हैं तो वैसे भगवान रामलला विराजमान का एक मित्र बनकर देवकीनंदन जी जो खुद एक जज थे उन्होंने बताया. इस तरीके से भगवान रामलला विराजमान और श्री रामजन्मभूमि का जो आन्दोलन है, ये अदालत के जो तकनीकी दांवपेच है उसके अंदर समाहित हो सकता है तो देवकीनंदन अग्रवाल जी ही पहले भगवान रामलला विराजमान के वादी मित्र माने गए. वही उन्होंने वाद मित्र के नाते एक अपील दायर की कोर्ट में जिसको कोर्ट ने स्वीकार कर लिया था.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से 4 साल पहले ही अशोक सिंघल का निधन हो गया. अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर बनवाने का अपना सपना साकार होते वो खुद नहीं देख सके, लेकिन जो राम मंदिर अब अयोध्या में आकार ले रहा है, उसकी रूपरेखा कैसी होगी, वो कैसा दिखेगा. ये सब अशोक सिंघल 1989 में ही देख चुके थे. राम मंदिर का वास्तु और शिल्प दोनों उन्हीं की पसंद का है.